त्रैगुणातीत्य

 

     तो, प्रकृति का नियंतृत्व यहाँतक फैला हुआ है । सारांश यह कि जिस अहंकार से हमारे सारे कर्म होते हैं वह अहंकार स्वयं ही प्रकृति के कर्म का एक करण है और इसलिए प्रकृति के नियंत्रण से मुक्त नहीं हो सकता; अहंकार की इच्छा प्रकृति द्वारा निर्धारित इच्छा है, यह उस प्रकृति का एक अंग है जो अपने पूर्व कर्मों और परिवर्तनों के द्वारा हमारे अन्दर गठित हुई है और इस प्रकार गठित प्रकृति में जो इच्छा है वही हमारे वर्तमान कर्म का निर्धारण करती है । कुछ लोगों का कहना है कि हमारे कर्म का मूलारंभ तो सर्वथा हमारी स्वाधीन पसन्द से होता है,  पीछे जो कुछ होता है वह भले ही उस कर्म के द्वारा निश्चित होता हो, हममें कर्मारंभ करने की जो शक्ति है तथा इस प्रकार किये गये कर्म का हमारे भविष्य पर जो असर होता है वही हमें अपने कर्मों के लिए जिम्मेदार ठहराता है । परन्तु प्रकृति के कर्म का वह मूलारंभ कौन-सा है जिसका नियंता कोई पूर्व कर्म न हो, हमारी प्रकृति की वह कौन-सी वर्तमान अवस्था है जो समस्त रूप में और व्योरेवार, हमारी पूर्व प्रकृति के कर्म का परिणाम न हो ? किसी स्वाधीन कर्मारंभ को हम इसलिए मान लेते हैं, क्योंकि हम प्रतिक्षण अपनी वर्तमान अवस्था से भविष्य की ओर देखकर अपना जीवन बिताते हैं और सदा अपनी वर्तमान अवस्था से भूतकाल की ओर नहीं लौटते, इसलिए हमारे मन में वर्तमान और उसके परिणाम ही स्पष्ट रूप से प्रतीत होते है; पर इस बात की बहुत ही अस्पष्ट धारणा होती है कि हमारा वर्तमान पूरी तरह हमारे भूतकाल का ही परिणाम है । भूतकाल के बारे में हमें ऐसा लगता है कि वह तो मरकर खतम हो गया । हम ऐसे बोलते और करते हैं मानो इस विशुद्ध और अछूते क्षण में हम अपने साथ जो चाहे करने के लिए स्वाधीन हैं और ऐसा करते हुए हम अपनी पसन्द की आंतरिक स्वाधीनता का पूर्ण उपयोग करते हैं । परन्तु इस तरह की कोई पूर्ण स्वतंत्रता नहीं है,  हमारी पसन्द के लिए ऐसी कोई स्वाधीनता नहीं है. ।

      हमारी इच्छा को सदा ही कतिपय संभावनाओं में से कुछ का चुनाव करना पड़ता है,  क्योंकि प्रकृति के काम करने का  तरीका; यहाँतक कि हमारी

 २३५


निश्चेष्टता किसी प्रकार की इच्छा करने से इनकार करना भी एक चुनाव है, प्रकृति की हममें जो इच्छा-शक्ति है उसका वह एक कर्म ही है; परमाणु में भी एक इच्छा-शक्ति सदा काम करती है । अन्तर केवल यही है कि कौन कहाँतक प्रकृति की इस इच्छा-शक्ति के साथ अपने-आपको जोड़ता है । जब हम अपने-आपको उसके साथ जोड़ लेते हैं तब यह सोचने लगते हैं कि यह इच्छा हमारी है और यह कहने लगते हैं कि यह एक स्वाधीन इच्छा है, हम ही कर्ता हैं । यह चाहे भूल हो या न हो, भ्रम हो या न हो, ''अपनी''  इच्छा, ''अपने''  कर्म की यह भावना सर्वथा निरर्थक या निरुपयोगी नहीं है, क्योंकि प्रकृति के अन्दर जो कुछ है उसकी एक सार्थकता और उपयोगिता है । यह हमारी सचेतन सत्ता की वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा हमारे अन्दर जो प्रकृति है वह अपने अंत-स्थित निगूढ़ पुरुष की अवस्थिति को अधिकाधिक जान लेती और उसके अनुकूल होती है और इस. ज्ञान-वृद्धि के द्वारा कर्म की एक महत्तर संभावना की ओर उद्घाटित होती है; इस अहंभाव और व्यष्टिगत इच्छा की सहायता से ही वह अपने-आपको अपनी उच्चतर संभावनाओं की ओर उठाती है, तामसी प्रकृति की नितांत या प्रबल निश्चेष्टता से निकलकर राजसी प्रकृति के आवेग और संघर्ष को प्राप्त होती है और फिर राजसी प्रकृति के आवेग और संघर्ष से निकलकर सात्विक प्रकृति के महत्तर प्रकाश, सुख और पवित्रता को प्राप्त होती है । प्राकृत मनुष्य जो सापेक्ष आत्मवशित्व लाभ करता है वह उसकी प्रकृति की उच्चतर संभावनाओं  का निम्नतर संभावनाओं पर आधिपत्य है और उसके अन्दर यह तब होता है जब वह निम्नतर गुण पर प्रभुता पाने के लिए, उसे अपने अधिकार में करने के लिए उच्चतर गुण के साथ अपने-आपको जोड़ लेता है । स्वाधीन इच्छा का बोध चाहे भ्रम हो या न हो, पर है प्रकृति के कर्म का एक आवश्यक यत्न । मनुष्य के. प्रगति-काल में इसका होना आवश्यक है तथा उच्चतर सत्य ग्रहण करने के लिए प्रस्तुत होने के पूर्व ही इसे खो देना उसके लिए घातक होगा । यदि यह कहा जाय, जैसा कि कहा जा चुका है, कि प्रकृति अपने विधानों को पूरा करने के लिए मनुष्य को भ्रम में डालती है और इस प्रकार के भ्रमों में व्यष्टिगत इच्छा की भावना सबसे जबर्दस्त भ्रम है, तो इसके साथ यह भी कहना होगा कि यह भ्रम उसके भले के लिए है और इसके बिना वह अपनी पूर्ण संभावनाओं के उत्कर्ष को नहीं प्राप्त हो सकता ।

       परन्तु यह निरा भ्रम नहीं है, केवल दृष्टिकोण और नियोजन की ही भूल है । अहंकार समझता है कि मैं ही वास्तविक आत्मा हूँ और इस तरह कर्म करता है मानो कर्म का वास्तविक केन्द्र वही है और सब कुछ मानो उसीके लिए है और

२३६ 


यहीं वह दृष्टिकोण और नियोजन की भूल करता है । यह सोचना गलत नहीं है कि हमारे अन्दर, हमारी प्रकृति के इस कर्म में कोई चीज या कोई पुरुष ऐसा है जो हमारी प्रकृति के कर्म का वास्तविक केन्द्र है और सब कुछ उसीके लिये है; परन्तु वह केन्द्र अहंकार नहीं, बल्कि हृद्देशस्थित निगूढ़ ईश्वर है और वह दिव्य पुरुष और जीव है जो अहंकार से पृथक् दिव्य पुरुष की सत्ता का ही एक अंश है । अहंकार का स्वत्व-प्रकाश हमारे मन पर उस सत्य की एक भग्न और विकृत छाया है जो बतलाता है कि हमारे अन्दर एक सदात्मा है जो सबका स्वामी है और जिसके लिए तथा जिसके आदेश से ही प्रकृति अपने कर्म में लगी रहती है । इसी प्रकार अहंकार की अपनी स्वाधीन इच्छा की कल्पना भी उस सत्य का एक विकृत और स्थानभ्रष्ट भाव है जो बतलाता है कि हमारे अन्दर एक स्वाधीन आत्मा है और प्रकृति की इच्छा उसी की इच्छा का परिवर्तित और आंशिक प्रतिबिम्ब है, परिवर्तित और आंशिक इसलिए कि यह इच्छा क्षण-क्षण परिवर्तित होनेवाले काल में रहती और सतत नये-नये ऐसे रूप धारण करके काम करती है जो अपने पूर्वरूपों को बहुत कुछ भूले रहते और स्वयं अपने ही परिणामों और लक्ष्यों को पूरा-पूरा नहीं जानते । परन्तु अन्दर की संकल्पशक्ति क्षण-क्षण परिवर्तित होनेवाले काल के परे है, वह इन सबको जानती है, और हम कह सकते हैं कि, प्रकृति का जो कर्म हमारे अन्दर होता है वह, इसी बात का प्रयास है कि अंतःस्थित संकल्प और ज्ञान के द्वारा अतिमानस-प्रकाश में जो कुछ पहले से देखा जा चुका है उसी को, प्राकृत और अहंभावापन्न अज्ञान को बड़ी कठिन अवस्थाओं में से होकर, कार्य-रूप में परिणत किया जाय ।

     परन्तु हमारी प्रगति के अन्दर एक समय निश्चय ही ऐसा आयेगा जब हम अपनी आँखों को अपनी सत्ता के वास्तविक सत्य को देखने के लिए खोलने को तैयार होंगे और तब अहंभावापन्न स्वाधीन इच्छा का भ्रम अवश्य दूर हो जायगा । अहंभावापन्न स्वाधीन इच्छा की भावना के त्याग का अर्थ यह नहीं है कि कर्म बन्द हो जायगा, क्योंकि कर्म करनेवाली तो प्रकृति है और वह इस अहंभावापन्न इच्छा-रूपी यंत्न को हटा देने पर भी अपना कर्म वैसे ही करती रहेगी जैसे उस समय करती थी जब प्रकृति के विकासक्रम की प्रक्रिया में यह यंत्र उपयोग में नहीं आया था । प्रकृति के लिए यह भी संभव हो सकता है कि जिस मनुष्य ने इस यंत्र का परित्याग कर दिया हो उसके अन्दर और भी महत्तर कर्म का विकास कर सके; क्योंकि ऐसे मनुष्य का मन इस बात को अधिक अच्छी तरह से जान सकेगा कि उसकी प्रकृति अपने ही कर्म के फलस्वरूप इस समय कैसी बनी है, उसमें यह जानने की अधिक क्षमता होगी कि जो शक्तियाँ उसके इर्द-गिर्द हैं उनमें कौन सी उसके विकास

२३७ 


में साधक और कौनसी बाधक हैं, तथा वह इस बात से भी अधिक अवगत होगा कि कौन-कौनसी महत्तर सम्भावनाएं उसकी प्रकृति में छिपी पड़ी हैं जो अभी अव्यक्त हैं, लेकिन व्यक्त होने की क्षमता रखती हैं । यह मन जिन महत्तर सम्भावनाओं को देखता है उन्हें कार्य में परिणत करने के लिए पुरुष की अनुमति प्राप्त करने का एक अधिक खुला हुआ मार्ग बन सकता है तथा प्रकृति के प्रत्युत्तर के लिए--और परिणामस्वरूप विकास और सिद्धि के लिए--अच्छा यंत्न हो सकता है । परन्तु स्वाधीन इच्छाका त्याग किसी रूप में अपनी वास्तविक आत्मा का आभास पाये बिना, केवल अदृष्टवाद को मानकर या प्रकृति की नियति को मानकर ही, नहीं होना चाहिए; क्योंकि तब तो हम अहंकार को ही अपनी आत्मा जानते रहेंगे और अहंकार सर्वदा प्रकृति का करण होता है अत: उसीसे कर्म करते रहेंगे और हमारी इच्छा प्रकृति का एक यंत्न बनी रहेगी, इससे हमारे अन्दर कोई वास्तविक परिवर्तन न होगा, केवल हमारे बौद्धिक भाव में कुछ फेर-फार हो जायगा । तब हमने अपनी अहमात्मक सत्ता और कर्म के प्रकृति-द्वारा नियंत्रित होने का व्यावहारिक सत्य तो स्वीकार कर लिया होगा, अपनी अधीनता को भी देख लिया होगा, किन्तु हमारे अन्दर जो अज आत्मा है, जो गुणों के कर्म से परे है, उसे हम न देख पाये होंगे, यह न देख पाये होंगे कि हमारी मुक्ति का द्वार कहाँ है । प्रकृति और अहंकार ही हमारी सम्पूर्ण सत्ता नहीं हैं, मुक्त पुरुष भी है ।

      परन्तु पुरुष की इस स्वाधीनता का स्वरूप क्या है ? प्रचलित सांख्य दर्शन के अनुसार पुरुष अपनी मूल सत्ता में स्वाधीन है, किन्तु इस स्वाधीनता का कारण यह है कि वह अकर्ता है । वह अपने अकर्तृ-स्वरूप पर प्रकृति के कर्म की जो छाया पड़ने देता है उसी से वह त्रिगुण के कर्मों द्वारा बाह्यत: बंध जाता है और अपनी स्वाधीनता को फिर से तब ही पा सकता है जब वह प्रकृति से अपना सम्बन्ध तोड़ दे और फलस्वरूप प्रकृति के कर्म बन्द हो जायें । इस तरह यदि कोई अपने चित्त से इस विचार को हटा दे कि मै कर्ता हूँ या ये मेरे कर्म हैं और गीता के उपदेशानुसार अपने-आपको अकर्ता जाने ( आत्मानं अकर्तारम् ) तथा सब कर्मों को अपने नहीं बल्कि प्रकृति के जाने, उन्हें उसके गुणों के खेल के रूप में देखे और इसी बुद्धि में स्थित हो जाय, तो क्या इसका परिणाम वैसा ही नहीं होगा ? सांख्य का पुरुष अनुमंता है, पर उसकी अनुमति निष्क्रय है, सारा कर्म प्रकृति का है; यह पुरुष सार-रूप से केवल साक्षी और भर्ता है, जगदीश्वर का नियामक सक्रिय चैतन्य नहीं । यह वह पुरुष है जो देखता और ग्रहण करता है, जैसे कोई दर्शक अपने सामने होनेवाले अभिनय को देखता और ग्रहण करता है, वह पुरुष नहीं जो उस अभिनय को तैयार करके, अपनी ही सत्ता में देखता है और साथ-ही-साथ उसका संचालक

२३८


और दर्शक भी होता है । इसलिए यदि यह पुरुष प्रकृति के कर्म से अपनी अनुमति हटाले, यदि उस मिथ्या कर्तृत्वाभिमान को त्याग दे जिससे प्रकृति का सारा खेल जारी रहता है, तो वह उसका भर्ता भी नहीं रह जाता और कर्म बन्द हो जाता है, क्योंकि प्रकृति साक्षी चैतन्य पुरुष की प्रसन्नता के लिए यह खेल खेलती और उसीका आश्रय पाकर उसे जारी रख सकती है । इस प्रकार यहस्पष्ट है कि पुरुष-प्रकृति-सम्बन्ध के विषय में गीता की धारणा वही नहीं है जो सांख्य की है, क्योंकि दोनो में एक ही साधन से एक-दूसरेसे सर्वथा भिन्न परिणाम होते हैं; सांख्य के अनुसार पुरुष के मुक्त होते ही कर्म बन्द हो जाता है और गीता के अनुसार पुरुष की मुक्ति का अर्थ है किसी महान्, नि:स्वार्थ और दिव्य कर्म का होना । सांख्य-सिद्धान्त में पुरुष और प्रकृति दो भिन्न सत्ताएँ हैं, गीता में ये दोनों एक ही स्वत:सिद्ध सत्ता के दो पहलू हैं, दो शक्तियाँ हैं; पुरुष यहाँ केवल अनुमंता ही नहीं है, बल्कि प्रकृति का ईश्वर है जो प्रकृति के द्वारा जगत्-लीला को भोगता है, प्रकृति के द्वारा दिव्य संकल्प और ज्ञान को जगत् की उस योजना में क्रियान्वित करता है जिसे वह अपनी अनुमति द्वारा धारण किये रहता है और जो उसी की सर्वव्यापी अवस्थिति से उसी की सत्ता में स्थित है, जो उसी की सत्ता के विधान से तथा उसके सचेतन संकल्प से संचालित है । इस पुरुष की दिव्य सत्ता और स्वभाव को जानना, उसके अनुकूल होना और उसमें रहना ही अहंकार और उसके कर्म से निवृत्त होने का हेतु है । इससे मनुष्य त्रिगुण की निम्न प्रकृति से ऊपर उठकर उच्चतर दिव्य प्रकृति को प्राप्त होता है ।

       यह ऊपर उठना जिस क्रिया के द्वारा नियंत्रित होता है वह प्रकृति के साथ पुरुष के सम्बन्ध में पुरुष की जटिल स्थिति से पैदा होती है; त्निविध पुरुष का गीतोक्त सिद्धान्त ही इसका आधार है । जो पुरुष प्रकृति की क्रिया को, उसके परिवर्तनों को, उसके आनुक्रमिक भूतभावों को सीधा अनुप्राणित करता है वह क्षर पुरुष है, जो प्रकृति के परिवर्तनों के साथ परिवर्तित होता सा और प्रकृति की गति के साथ चलता सा मालूम होता है, वह व्यष्टि पुरुष है जो प्रकृति के सतत कर्म-प्रवाह से अपने व्यक्तित्व में होनेवाले परिवर्तनों के साथ तदाकार हुआ चलता है । यहाँ प्रकृति क्षर है, जो काल के अन्दर सतत प्रवाहित और परिवर्तित होती रहती है, उसका सदा उद्भव होता रहता है । परन्तु यह प्रकृति पुरुष की केवल कार्यकारिणी शक्ति है; क्योंकि पुरुष जो कुछ है उसीसे प्रकृति का भूतभाव बन सकता है, उसकी संभूति की सम्भावनाओं के अनुसार ही वह कर्म कर सकती है; यह उसकी सत्ता के भूतभाव को ही कार्यान्वित करती है । उसका कर्म स्वभाव द्वारा, पुरुष की आत्म-संभूति के विधान द्वारा, नियंत्रिता होता है, यद्यपि, प्रकृति

२३९ 


पुरुष के भूतभाव को व्यक्त करनेवाली कार्यकारिणी शक्ति है अतः प्रायः ऐसा दीखता है कि कर्म ही स्वभाव को नियत करता है । जो कुछ हम हैं उसी के अनुसार कर्म करते हैं, और अपने कर्म के द्वारा विकसित होते हैं तथा जो कुछ हम हैं उसे सिद्ध करते हैं । प्रकृति कर्म है, परिवर्तन है, भूतभाव है और वह शक्ति है जो इन सबको कार्य में परिणत करती है; परन्तु पुरुष वह चित्स्वरूप सत् है जिससे यह शक्ति नि:सृत होती है, जिसकी प्रकाशमान चेतना से ही उसने यह इच्छा पायी है जो परिवर्तित होती रहती है और अपने परिवर्तनों को उस प्रकृति के कर्मों में अभिव्यक्त करती रहती है । यह पुरुष एक है और अनेक भी; यही वह प्राणसत्ता है जिसमें से सारा जीवन बनता है और यही सब प्राणी भी है; यही विश्व-सत्ता है और यही 'सर्व भूतानि' है, क्योंकि ये सब 'एक' ही हैं; ये सब असंख्य पुरुष अपने मूल स्वरूप मे एकमेव अद्वितीय पुरुष ही हैं । परन्तु प्रकृति में अहंभाव का यह यंत्न प्रकृति के कर्म का ही एक अंग है, वह मन को इस बात के लिए प्रवृत्त करता है कि वह पुरुष की चेतना को तात्कालिक परिच्छिन्न भूतभाव के साथ, देश-काल-मर्यादित किसी विशिष्ट क्षेत्र में प्रकृति की सक्रिय चेतना के साथ, प्रकृति के पूर्व-कर्म-समूह के क्षण-क्षण पर होनेवाले फल के साथ, तदाकार कर ले । एक तरह से यह संभव है कि इन समस्त जीवों की एकता को स्वयं प्रकृति में ही अनुभव किया जा सके और विश्वप्रकृति के अखिल कर्म के अन्दर व्यक्त विराट् पुरुष को जाना जा सके, यह जाना जा सके कि प्रकृति पुरुष को अभिव्यक्त करती है और पुरुष ही प्रकृति बनता है । परन्तु यह अनुभव करना और जानना विराट् भूतभाव को ही जानना है, जो मिथ्या असत् भाव नहीं है, किन्तु केवल इसी ज्ञान से हमें आत्मा का सच्चा ज्ञान नहीं मिलता; क्योंकि हमारी वास्तविक आत्मा सदा ही इससे कुछ अधिक है और इसके परे है ।

     कारण, प्रकृति में व्यक्त और उसके कर्म में बद्ध पुरुष के परे पुरुष की एक और स्थिति है, जो केवल एक स्थितिशील अवस्था है, वहाँ कर्म बिलकुल नहीं है; वह पुरुष की नीरव-निश्चल, सर्वगत, स्वत:स्थित, अचल, अक्षर आत्मसत्ता है, भूतभाव नहीं । क्षरभाव में पुरुष प्रकृति के कर्म में फँसा है, इसलिए वह काल के मुहूर्तों में, भूतभाव की तरंगों में केन्द्रीभूत है, मानो अपने-आपको खो बैठा है, पर यह खो बैठना वास्तविक नहीं, यह केवल ऐसा दिखायी देता है और चूंकि यहाँ पुरुष भूतभाव के प्रवाह का अनुसरण करता है इसीलिए ऐसा जान पड़ता है । अक्षरभाव में प्रकृति पुरुष में शान्ति और विश्रांति को प्राप्त होती है, इस कारण पुरुष अपने अक्षर स्वरूप को जान जाता है । क्षर सांख्योक्त पुरुष की वह अवस्था है जब वह प्रकृति के गुणों के नानाविध कर्मों को प्रतिबिम्बित करता है और अपने-

२४० 


आपको सगुण, व्यष्टि-पुरुष जानता है; अक्षर सांख्योक्त पुरुष की वह अवस्था है जब ये गुण साम्यावस्था को प्राप्त होते हैं और वह अपने-आपको निर्गुण, नैर्व्यक्तिक पुरुष जानता है । इसलिए जहाँ क्षर पुरुष की यह अवस्था है कि वह प्रकृति के कर्म के साथ युक्त होकर कर्ता भासित होता है वहाँ अक्षर पुरुष गुण-कर्मों से सर्वथा अलग, निष्क्रिय, अकर्ता और साक्षि मात्र रहता है । मनुष्य की आत्मा जब क्षरभाव में आती है तब व्यक्तित्व के खेल के साथ एक हो जाती और प्रकृतिगत अहंभाव से अपने स्वरूप-ज्ञान को ढक लेती है और इस तरह अपने-आपको कर्मों का कर्ता समझने लगती है; और जब यह आत्मा अक्षर भाव में आती है तब अपने-आपको नैर्व्यक्तिक भाव के साथ एक कर लेती और यह जान लेती है कि कत्रिर प्रकृति है, वह तो निष्क्रिय अकर्ता साक्षी पुरुष है । मनुष्य के मन को दो भावों में से किसी एक भाव की ओर झुकना पड़ता है, मन इन दो भावों को यह समझकर ग्रहण करता है कि ये सर्वथा अलग-अलग हैं--या तो वह गुण और व्यक्तित्व के क्षरभावमय कर्म में जाकर प्रकृति के द्वारा बँध जाता है, नहीं तो अक्षर नैर्व्यक्तित्व में जाकर प्रकृति की क्रियाओं से मुक्त हो जाता है ।

      परन्तु यथार्थ में पुरुष का आत्मपद और अक्षरत्व तथा प्रकृति में कर्म और क्षरत्व, दोनों एक साथ ही रहते हैं । यदि आत्मा की सत्ता का ऐसा परम भाव न होता जिसके ये दोनों विपरीत पहलू हैं--पर वह इनमें से किसी से सीमित नहीं है--तों इन परस्पर-विरोधी बातों के समाधान के लिए या तो मायावाद जैसे किसी वाद का आश्रय लेना पड़ता या आत्मा को उभयविध और विभक्त मानना पड़ता । हमने देखा है कि गीता इस परम भाव को पुरुषोत्तम की भावना में पाती है । वे परम पुरुष ईश्वर हैं, भगवान् है 'सर्व भूतमहेश्वर'  हैं । वे अपनी प्रकृति को, गीता के शब्दों में 'स्वां प्रकृतिं'  को अपने अन्दर से निकालते हैं, जो जीव में प्रकट होती है और प्रत्येक जीव के स्वभाव के द्वारा--उसमें स्थित भागवत सत्ता के धर्म के अनुसार, जिसकी मोटी रूप-रेखा का हरएक जीव को अनुसरण करना पड़ता है--क्रियान्वित की जाती है । परन्तु अहंकारमय प्रकृति में गुणों की एक-दूसरेपर होनेवाली भ्रामक क्रिया के द्वारा यह क्रियान्वित होती है (गुणा गुणेषु वर्तन्ते ) । यह त्नैगुष्यमयी माया है जिसे पार करना मनुष्य के लिए बड़ा कठिन है  ( दुरत्यया ), फिर भी त्रिगुण को पार कर इसके परे पहुँचा जा सकता है । क्योंकि ईश्वर जब क्षरभाव के अन्दर अपनी प्रकृति-शक्ति के द्वारा यह सब कर रहे होते हैं, तब भी वे अपने अक्षर-भाव में इस सबसे अलिप्त और उदासीन रहते हैं वे सबको समदृष्टि से देखते, सबके अन्दर प्रसारित रहते, और फिर भी सबके परे रहते हैं । तीनों अवस्थाओं में वे ही स्वामी है;  उत्तम भाव में वे परमेश्वर हैं,

२४१ 


अक्षरभाव में सबके अध्यक्ष ( प्रभु ) और सर्वव्यापक निर्गुण ब्रह्म (विभु ) हैं, और क्षरभाव में सर्वव्यापी भगवत्संकल्प और सर्वत्र विद्यमान सक्रिय ईश्वर हैं । वे अपने व्यक्तित्व का खेल खेलते हुए भी अपने निर्गुण स्वरूप में नित्यमुक्त हैं; वे न तो केवल निर्गुण हैं, न केवल सगुण ही, बल्कि सगुण और निर्गुण उस एक ही सत्ता के दो पहलू हैं, उपनिषद् ने इनको 'निर्गुणो गुणी'  कहा है । किसी घटना के घटने से पहले ही वे उसका संकल्प कर चुकते हैं--तभी वे अभीतक जीते-जागते धार्तराष्ट्रों के सम्बन्ध में कहते हैं कि ''मयैव निहता: पूर्वमेव''  (मैं उन्हें पहले ही मार चुका हूँ ) --और प्रकृति का कार्य-सम्पादन उन्हीं के संकल्प का परिणाम मात्र होता है; फिर भी चूंकि उनके व्यक्ति-स्वरूप के पीछे उनका नैर्व्यक्तिक स्वरूप रहता है इसलिए वे अपने कर्मों से नहीं बंधते ( कर्त्तारम् अकर्त्तारम् ) ।

     परन्तु मनुष्य, कर्म और भूतभाव के साथ अज्ञानवश तदात्म हो जाने के कारण--मानो वे कर्मादि उससे निःसृत आत्मा की एक शक्ति ही नहीं, समग्र आत्मा है--अहंकार-विमूढ़ हो जाता है । वह सोचता है कि सब कुछ वह और दूसरे लोग ही कर रहे हैं; वह यह नहीं देख पाता कि सारा कर्म प्रकृति कर रही है और अज्ञान तथा आसक्ति के कारण प्रकृति के कर्मों को वह गलत समझता और विकृत करता है । गुणोंने उसे अपना गुलाम बना रखा है, कभी तो तमोगुण उसे जड़ता में धर दबाता है, कभी रजोगुण की जोरदार आंधी उसे उड़ा ले जाती है ओर कभी सत्वगुण का आंशिक प्रकाश उसे बाँध रखता है और वह यह नहीं देख पाता कि वह अपने प्राकृत मन से अलग है और गुणों के द्वारा केवल प्राकृत मन में फेर-फार होता रहता है । इसीलिए सुख और दु:ख, हर्ष और शोक, काम और क्रोध, आसक्ति और जुगुप्सा उसे अपने वश में कर लेते हैं, उसे जरा भी स्वाधीनता नहीं रहती ।

    मुक्त होने के लिए उसे प्रकृति के कर्म से पीछे हटकर अक्षर पुरुष की स्थिति में आ जाना होगा; तब वह त्रिगुणातीत होगा । अपने-आपको अक्षर, अविकार्य, अपरिवर्तनीय पुरुष जानकर वह अपने-आपको अक्षर, निर्गुण आत्मा जानेगा और प्रकृति के कर्म को स्थिर शान्ति के साथ देखेगा तथा उसे निष्पक्षभाव से सहारा देगा, पर खुद स्थिर, उदासीन, अलिप्त, अचल, विशुद्ध तथा सब प्राणियों के साथ उनकी आत्मा में एकीभूत रहेगा, प्रकृति और उसके कर्म के साथ नहीं । यह आत्मा यद्यपि अपनी उपस्थिति से प्रकृति को कर्म करने का अधिकार देती है, यद्यपि अपनी सर्वव्यापी सत्ता द्वारा प्रकृति के कर्मों को सहारा देती है, उन्हें अनुमति देती है, अर्थात् यद्यपि यह प्रभु है, विभु है, फिर भी यह कर्म या कर्तृत्व या कर्म-फलसंयोग का सृजन नहीं करती, बल्कि क्षर-भाव में प्रकृति के द्वारा होनेवाले

२४२ 


इन सब कर्मों को केवल देखती रहती है;  इस जन्म के अन्दर आये हुए किसी भी प्राणी के पाप और पुण्य को अपना मानकर उन्हें अपने सिर पर नहीं लेती- ''नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभु:;''   यह अपनी आध्यात्मिक विशुद्ध दिव्य स्थिति में बनी रहती है । अज्ञान से विमूढ़ अहंकार ही इन सब चीजों को अपनी मान लेता है, क्योंकि यह कर्तापन की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले लेता है और अपनेको उसी रूप में देखना पसन्द करता है, न कि अपने असली रूप में जिसमें यह किसी महत्तर शक्ति का यंत्रमात है, ''अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तव: ।''  निर्गुण, नैर्व्यक्तिक आत्मस्थिति में लौटकर जीव महत्तर आत्म-ज्ञान को फिर से पा जाता है और प्रकृति के कर्म-बंधन से मुक्त हो जाता है, तब प्रकृति के गुण उसे स्पर्श नहीं करते, वह उसके शुभाशुभ और सुख-दुःख के बाह्य रूपों से अलिप्त रहता है । प्राकृत सत्ता, मन-प्राण-शरीर अब भी रहते हैं, प्रकृति अब भी कर्म करती है; पर आन्तरिक सत्ता अपने-आपको इनके साथ तदाकार नहीं करती, न यह उस समय सुखी या दुःखी ही होती है जब कि प्राकृत सत्ता में गुणों की क्रिया हो रही होती है । अब वह जीव स्थिर, मुक्त, सर्वसाक्षी अक्षर ब्रह्म हो जाता है ।

     क्या यही परम पद, परम प्राप्तव्य, उत्तम रहस्य है ? नहीं, यह नहीं हो सकता, क्योंकि यह मिश्रित या विभक्त अवस्था है, पूर्ण समन्वित पद नहीं; यह द्विविध सत्ता है, एकीभूत स्वरूप नहीं, यहाँ आत्मा में तो मुक्ति है पर प्रकृति में अपूर्णता है । यह केवल एक अवस्था हो सकती है । तब इसके परे क्या है ? एक समाधान उन संन्यासवादियों का है जो प्रकृति का, कर्म का सर्वथा त्याग कर देते हैं,  कम-खे-कम कर्म का यथासम्भव त्याग कर देते हैं ताकि विशुद्ध अविभक्त मुक्ति-स्थिति प्राप्त हो; किन्तु गीता इस समाधान को स्वीकार तो करती है पर इसे उत्तम नहीं मानती । गीता भी कर्मों के संन्यास पर जोर देती है ''सर्वकर्माणि संन्यस्थं'',  पर यह ब्रह्म को आन्तरिक अर्पण है । क्षर भाव में ब्रह्म प्रकृति के कर्म को पूरा-पूरा सहारा देता है और अक्षर भाव में ब्रह्म प्रकृति के कर्म को सहारा देते हुए भी उससे अलग रहता है, अपने मुक्त स्वरूप को कायम रखता है; अक्षर ब्रह्म के साथ युक्त व्यष्टि-पुरुष मुक्त और प्रकृति से अलग रहता है, फिर भी क्षर में स्थित ब्रह्म के साथ युक्त रहकर वह कर्म को सहारा देता है, पर उससे लिप्त नही होता । यह द्विविध भाव उत्तम प्रकार से तब क्रियान्वित होता है जब व्यक्ति

________________

१. न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभु: ।

  न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ।।५-१४।।

२. ५-१५

३. ५-१५. 

२४३ 


यह देख लेता है कि ये दोनों एक पुरुषोत्तम के ही दो पहलू हैं. । पुरुषोत्तम सब भूतों में निगूढ़ अंतर्यामी ईश्वर-रूप से रहते हुए प्रकृति का नियंत्नण करते हैं और उन्हीं की इच्छा से, जो अब अहंभाव से विकृत या विरूप नहीं हैं, प्रकृति स्वभाव-नियत होकर कर्मसंपादन करती है;  और व्यष्टि-पुरुष दिव्यीकृत प्राकृत सत्ता को भगवत्संकल्प-साधन का एक यंत्नमाव 'निमित्तमात्रं,'  बना देता है । वह कर्म करता हुआ भी त्रिगुणातीत, निस्त्रैगुण्य ही बना रहता है और गीता ने आरम्भ में जो आदेश किया, ''निस्त्रैगुष्यो भवार्जुन' (हे अर्जुन ! तू निस्त्रैगुण्य हो जा ), उसे अन्त में पूर्णतया कार्य में सफल करता है । वह अब भी गुणों का भोक्ता तो है पर ब्रह्म की तरह अर्थात् भोक्ता होने पर भी उनसे बद्ध नहीं 'निर्गुण गुण-भोक्तृ च', और ब्रह्म की तरह ही अनासक्त होते हुए भी सबका भर्ता है 'असक्तं सर्वभृत्, उसमें गुणों की क्रिया का रूप बिलकुल बदल जाता है, यह क्रिया गुणों के अहमात्मक रूप और प्रतिक्रियाओं से ऊपर उठी रहती है । क्योंकि उसने अपनी सम्पूर्ण सत्ता को पुरुषोत्तम में एकीभूत कर लिया है, वह भागवत सत्ता और भूतभाव की उच्चतम दिव्य प्रकृति 'मदभावम्' को प्राप्त हो गया है, और अपने मन और चित्त को भी भगवान् के साथ एक कर लिया है 'मन्मना मच्चित्त:' । यह रूपान्तर ही प्रकृति का चरम विकास और दिव्य जन्म की परम सिद्धि है, यही  ''उत्तमं रहस्य'' है । यह संसिद्धि जब प्राप्त हो जाती है तब पुरुष अपने-आपको प्रकृति का स्वामी जानता है और, भागवत ज्योति की एक ज्योति तथा भगवदिच्छा की ही एक इच्छा बनकर, वह अपनी प्रकृति की क्रियाओं को दिव्य कर्म में रूपान्त- रित करने में समर्थ होता है ।

२४४